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हरिवंशराय बच्चन »
साँस चलती है तुझे ,
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर !
चल रहा है तारकों का ,
दल गगन में गीत गाता
चल रहा आकाश भी है ,
शून्य में भ्रमता-भ्रमाता
पाँव के नीचे पड़ी
अचला नहीं , यह चंचला है
एक कण भी , एक क्षण भी
एक थल पर टिक न पाता ,
शक्तियाँ गति की तुझे ,
सब ओर से घेरे हुए है
स्थान से अपने तुझे ,
टलना पड़ेगा ही , मुसाफिर !
साँस चलती है तुझे ,
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर !
थे जहाँ पर गर्त पैरों
को ज़माना ही पड़ा था
पत्थरों से पाँव के ,
छाले छिलाना ही पड़ा था
घास मखमल-सी जहाँ थी
मन गया था लोट सहसा ,
थी घनी छाया जहाँ पर ,
तन जुड़ाना ही पड़ा था
पग परीक्षा , पग प्रलोभन
ज़ोर-कमज़ोरी भरा तू !
इस तरफ डटना , उधर
ढलना पड़ेगा ही , मुसाफिर !
साँस चलती है तुझे ,
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर !
शूल कुछ ऐसे , पगों में ,
चेतना की स्फूर्ति भरते
तेज़ चलने को विवश ,
करते , हमेशा जबकि गड़ते
शुक्रिया उनका कि वे
पथ को रहे प्रेरक बनाए
किन्तु कुछ ऐसे कि रुकने ,
के लिए मजबूर करते ,
और जो उत्साह का
देते कलेजा चीर , ऐसे
कंटकों का दल तुझे ,
दलना पड़ेगा ही , मुसाफिर !
साँस चलती है तुझे ,
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर !
सूर्य ने हँसना भुलाया
चंद्रमा ने मुस्कुराना
और भूली यामिनी भी ,
तारिकाओं को जगाना
एक झोंके ने बुझाया ,
हाथ का भी दीप लेकिन
मत बना इसको पथिक तू !
बैठ जाने का बहाना ,
एक कोने में हृदय के ,
आग तेरे जग रही है ,
देखने को मग तुझे ,
जलना पड़ेगा ही , मुसाफिर !
साँस चलती है तुझे ,
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर !
वह कठिन पथ और कब
उसकी मुसीबत भूलती है ,
साँस उसकी याद करके
भी अभी तक फूलती है
यह मनुज की वीरता है ,
या कि उसकी बेहयाई ,
साथ ही आशा सुखों का ,
स्वप्न लेकर झूलती है
सत्य सुधियाँ , झूठ शायद
स्वप्न , पर चलना अगर है ,
झूठ से सच को तुझे !
छलना पड़ेगा ही , मुसाफिर !
साँस चलती है तुझे ,
चलना पड़ेगा ही मुसाफिर !
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