हाँ...अपने जीवन से जुड़े सभी अहम् फैसले हमने ही किए हैं - ऐसा हमें लगता है यदि हम अपना निर्णय स्वयं करने वालों में से हैं तो । पर क्या सच में ऐसा ही है ? क्या हम स्वयं भी पूर्णतः निष्पक्ष होकर और पूर्वाग्रहों से प्रभावित हुए बिना अपने निर्णय कर रहे हैं ?
परिवार , समाज , मित्र अथवा कुछ शुभचिंतकों से प्रभावित होकर फैसले करना या किसी के दबाव में कुछ करना अलग बात है ।
लेकिन यहाँ बात उनकी हो रही है जो लोग अपने निर्णय आप लेने में विश्वास रखते हैं । फिर भी कोई भी निर्णय केवल अपने स्वार्थ के लिए करना उचित नहीं होता है । देश-समाज-परिवार के हित का भी ध्यान रखना चाहिए विशेष कर तब जब हमारा निर्णय इन सब को प्रभावित करता है ।
व्यक्तिगत रूप से , अपने जीवन के फैसले हमें स्वयं ही लेना चाहिए क्योंकि हम ही अपने बारे में सबसे ज्यादा जानते हैं । तथापि बड़ों एवं जिन्हें हम अपने हितैषी समझते हैं उनकी राय भी जरूर लेना चाहिए । बड़ों के पास अनुभव होता है जो बेहद कीमती है -
" ज्ञान अर्जित करने के तीन तरीके हो सकते हैं- पहला , चिंतन करके जो सबसे सही तरीका है ; दूसरा , अनुकरण करके जो सबसे आसान तरीका है ; तीसरा , अनुभव करके जो सबसे कष्टदायी तरीका है ; अतः एक बुद्धिमान मनुष्य न सिर्फ अनुभवों से बल्कि दूसरों के अनुभवों से भी सीखता है "
वह सबक जो हम दूसरों के अनुभवों से ले लेते हैं हमें फिर वैसा काम करने से बचाता है ।
> तब भी कोई निर्णय स्वयं सोच-समझकर लिए जाने पर भी गलत निकल जाता है क्यों ?
क्योंकि हम उन चीजों को भूल रहे हैं जो हमें और हमारे निर्णयों को लगातार प्रभावित करती रहती हैं , वे तत्त्व जिन्हें हम ' हम ' समझ रहे हैं लेकिन वो हममें शामिल ही नहीं है , कुछ चीजें जो हमारी वास्तविक सूझ-बूझ को भटका रही हैं और वे हैं --- क्रोध , मोह , काम , अहंकार , लालच , बैर , दिखावा और ईर्ष्या ,
दुर्भावनाएँ , पूर्वाग्रह , पक्षपात , ऊँच-नीच की भावनाएँ , व्यर्थ की रूढ़िवादियाँ... इन दोषों का अंत नहीं । क्या ' हम ' इनसे बचे हैं ?
जिनके कारण हमारे स्वयं के द्वारा लिए हुए निर्णय भी गलत निकल जाते हैं । जो हमारा हिस्सा न होते हुए भी हमारे निर्णयों को प्रभावित कर जाते हैं ।
और इसलिए हमें बाद में अपने लिए निर्णयों पर ही पछतावा होता है । हम कहते हैं - अरे ! गुस्से में ऐसा कर दिया था । मानते हैं हम छोटे-बड़े निर्णयों पर इन बातों के प्रभाव को ।
दूसरों के दबाव में लिए गलत निर्णयों के दोष का ठीकरा तो दूसरों पर अथवा भाग्य पर ही फूट जाता है अतः इसकी कोई चिंता नहीं । लेकिन हमारे अंदर पैठे जो दुर्गुण हमारे निर्णयों और कार्यों को गलत बना रहे हैं उनका निराकरण तो करना ही चाहिए ।
मेरे विचार से , इसका केवल एक उपाय है जो मैंने गीता-ज्ञान से पाया है वह है : -
" पूर्णतः निष्पक्ष और पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर , सभी के लिए कल्याणकारी कर्म अपना कर्त्तव्य समझकर भगवान के समर्पण करते हुए करो "
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