आराम करो ?

कार्य करने में आलस करना और टालना एक बुरी प्रवृत्ति है, आज का काम कल और कल का काम परसों पर छोड़ देना कुछ लोगों का स्वभाव होता है ।
उनके जीवन में न तो लक्ष्य होता है न ही लक्ष्य प्राप्ति की सफलता ; उन्हें केवल आराम करने में ही खुशी मिल जाती है और ऐसा कहने तथा करने के कारण या कहिए बहाने भी पर्याप्त होते हैं । ऐसे ही व्यक्तियों पर इस कविता के माध्यम से गोपालप्रसाद व्यास जी ने व्यंग्य किया है ।
अद्भुतलाइफ पर इस कविता के माध्यम से जीवन में कर्म और श्रम का संदेश प्रस्तुत है -

       "  आराम करो-आराम करो  "

एक मित्र मिले , बोले , " लाला , तुम किस चक्की का खाते हो ?
इस डेढ़ छँटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो ।
क्या रक्खा है माँस बढ़ाने में , मनहूस , अक्ल से काम करो ।
संक्रान्ति-काल की बेला है , मर मिटो , जगत में नाम करो । "
हम बोले , " रहने दो लेक्चर , पुरुषों को मत बदनाम करो ।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा , आराम करो, आराम करो ।

आराम ज़िन्दगी की कुंजी , इससे न तपेदिक होती है ।
आराम सुधा की एक बूंद , तन का दुबलापन खोती है ।
आराम शब्द में ' राम ' छिपा जो भव-बंधन को खोता है ।
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ , मेरे अनुभव से काम करो ।
ये जीवन-यौवन क्षणभंगुर , आराम करो , आराम करो ।

यदि करना ही कुछ पड़ जाए, तो अधिक न तुम उत्पात करो ।
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो ।
करने-धरने में क्या रक्खा , जो रक्खा बात बनाने में ।
जो ओठ हिलाने में रस है , वह कभी न हाथ हिलाने में ।
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ - है मज़ा मूर्ख कहलाने में ।
जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में ।

मैं यही सोचकर पास अक्ल के , कम ही जाया करता हूँ ।
जो बुद्धिमान जन होते हैं , उनसे कतराया करता हूँ ।
दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ ।
जो मिलता है , खा लेता हूँ , चुपके सो जाया करता हूँ ।
मेरी गीता में लिखा हुआ - सच्चे योगी जो होते हैं ,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं ।

अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है ।
वह सात स्वर्ग , अपवर्ग , मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है ।
जब ' सुख की नींद ' कढ़ा तकिया , इस सर के नीचे आता है ,
तो सच कहता हूँ इस सर में , इंजन जैसा लग जाता है ।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ , बुद्धि भी फक-फक करती है ।
भावों का रश हो जाता है , कविता सब उमड़ी पड़ती है ।

मैं औरों की तो नहीं , बात पहले अपनी ही लेता हूँ ।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ ।
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं ।
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं ।
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो ।
यह खाट बिछा लो आँगन में , लेटो , बैठो , आराम करो ।

- गोपालप्रसाद व्यास

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