'धर्मार्थकाममोक्षाणां शरीरं साधानं परम्'
इस बात का विश्वास उन्नति के लिए परम आवश्यक है कि स्वास्थ्य रक्षा मनुष्य का प्रधान धर्म है।बहुत कम लोग यह अच्छी तरह समझते हैं कि शरीर का संयम भी मनुष्य के कत्ताव्यों में से है। जब तक शरीर है, तभी तक मनुष्य सब कुछ कर सकता है। लोग बात बात में प्रकट करते हैं कि शरीर उनका है, वे जिस तरह चाहें, उसे रखें। प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन करने से जो बाधा होती है, उसे वे एक आकस्मिक आपत्ति समझते हैं, अपने किए का फल नहीं समझते। यद्यपि इस शारीरिक व्यतिक्रम का कुफल भी कुटुंब और परिवार के लोगों को उतना ही भोगना पड़ता है जितना और अपराधों का, पर इस प्रकार का व्यतिक्रम करनेवाला अपने को अपराधी नहीं गिनता। मद्यपान से जो शारीरिक व्यतिक्रम होता है, उसकी बुराई तो सब लोग स्वीकार करते हैं; पर यह नहीं समझते कि जैसे यह शारीरिक व्यतिक्रम बुरा है, वैसे ही सब शारीरिक व्यतिक्रम बुरे हैं। बात यह है कि स्वास्थ्य के नियमों का उल्लंघन भी पाप है। आत्मसंस्कार की वह शिक्षा अधूरी ही समझी जायगी जिसमें शरीर संयम की व्यवस्था और स्वास्थ्य रक्षा का विधान न होगा। इसी से बड़े-बड़े विद्यालयों में, जिनमें वैज्ञानिक शिक्षा का पूर्ण प्रबन्ध है, शरीर विज्ञान को अच्छा स्थान दिया जाता है। हमारे कल्याण के लिए जैसे गणित के नियमों और शब्दों के रूप का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है, वैसे ही शरीर यन्त्र की उन क्रियाओं का जानना भी परम आवश्यक है जिनके द्वारा जीवन की स्थिति रहती है। जब शरीर अस्वस्थ रहता है, तब चित्त भी ठीक नहीं रहता। प्रौढ़ बुध्दि और सूक्ष्म विवेक के लिए पुष्ट शरीर का होना आवश्यक है। शरीर की रक्षा करना प्रत्येक धार्मिक का कर्तव्या है; क्योंकि 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।' ईश्वर के सामने हमें इसका हिसाब देना होगा कि हमने उससे प्राप्त की हुई शक्तियों का ठीक ठीक उपयोग किया है। इसके लिए समाज के प्रति भी हम उत्तरदाता हैं, क्योंकि उसका कल्याण प्रत्येक व्यक्ति के कल्याण पर निर्भर है। सबसे अधिक तो हमारे व्यतिक्रम का परिणाम हमारे ही ऊपर पड़ेगा; क्योंकि हमारा यह कर्तव्ये है कि हम किसी शारीरिक शक्ति पर अत्यन्त अधिक जोर न डालें।
स्वास्थ्य का बड़ा भारी नियम इस रूप में कहा जा सकता है। शरीर की शक्तियों का जो नित्यश: क्या प्रतिक्षण क्षय होता रहता है, उसकी पूर्ति का ठीक ठीक प्रबन्ध परम आवश्यक है। शरीर की जो गरमी बराबर निकलती रहती है और उसके संयोजक द्रव्यों का जो क्षय होता रहता है, उसकी कड़ी सूचना भूख और प्यास के वेग द्वारा मिलती है। जिस प्रकार किसी सेना के सिपाही अधिपति से कहते हैं कि और सामग्री लाओ, नहीं तो हड़ताल कर देंगे, उसी प्रकार शारीरिक शक्तियाँ भी शरीर से अपनी पुकार सुनाती हैं और काम बन्द करने की धामकी देती हैं। बुध्दिमान् मनुष्य अपना लाभ सोचकर उनकी सूचना पर ध्याकन देता है और उन्हें आवश्यकता के अनुसार ताजी हवा अन्न और जल पहुँचाता है। जिन अवयवों से स्वच्छ वायु का उपयोग होता है, उन्हें श्वास वाहक अवयव कहते हैं, जो भोजन ग्रहण करते और उसका रस तैयार करते हैं, उन्हें पाचक अवयव कहते हैं; जो सारे शरीर में रक्त द्वारा वायु और रस का संचार करते हैं, संचारक अवयव कहलाते हैं; और जो शरीर के अनावश्यक द्रव्यों को बाहर करते हैं, वे मलवाहक अवयव कहलाते हैं। बहुत सी अवस्थाओं में तो अधिकतर यह मनुष्यों ही के वश की बात है कि वे इन अवयवों को स्वस्थ दशा में रखें, जिसमें वे अपना काम ठीक ठीक कर सकें। यदि वे ऐसा न करेंगे तो उनके शरीर के भीतर जो क्षय होता है, वह पोषण की अपेक्षा अधिक होगा, जिसका परिणाम रोग और मृत्यु है। उनका मस्तिष्क और हृदय भी, जो जीवन के आधार हैं, अशक्त होने के कारण अपना काम छोड़ देंगे। पर जो लोग इस विषय में अपने लाभ और कर्तव्यउ को विचारेंगे, वे दो बातों का पूरा ध्याोन रखेंगे, भोजन का और व्यायाम का। व्यायाम संचारक अवयवों को रस का ठीक-ठीक संचार करने में सहायता देता है। भोजन संचारक और मलवाहक अवयवों की क्रिया का उपक्रम करता है। स्वास्थ्य के लिए और बहुत सी बातों का विचार रखना होता, जैसे ताजी हवा और ऋतु के अनुकूल कपड़े लत्तो का, विश्राम और नींद का इत्यादि इत्यादि। पर मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि यदि मनुष्य भोजन और व्यायाम के विषय में पूरी चौकसी रखे तो वह भलाचंगा रह सकता है। यह भी आवश्यक है कि मनुष्य सफाई से रहे और कोई ऐसा व्यवसाय न करे जो स्वास्थ्य के लिए हानिकर हो।
भोजन के विषय में पक्का सिध्दान्त यह है कि न बहुत अधिक खाय और न बहुत कम। अधिक खाने से कभी कभी जितनी हानि हो जाती है, उतनी कम खाने से नहीं होती। यदि तुम पक्वाशय और ऍंतड़ियों पर इतना बोझ डालोगे कि वे उसे सँभाल न सकें, तो उनका काम बन्द हो जायेगा। इस विषय में संयम का ध्या न बराबर रखना चाहिए और इस बात को समझना चाहिए कि हम जीने के लिए खाते हैं, खाने के लिए नहीं जीते। भोजन उतना ही करना चाहिए जितने में तुष्टि हो जाय; उसके ऊपर केवल मजे के लिए खाते जाना ठीक नहीं है। शरीर के पोषण के लिए यह आवश्यक है कि जो कुछ हम खायँ, उसमें कई प्रकार के द्रव्य हों, जैसे सत्ता (जो आटे, मांस, अण्डे, छेने आदि में होता है), चिकनाई (जो दूधा, घी, चरबी, तेल आदि में होती है,) लसी (जो चीनी, साबूदाने, शहद आदि में होती है), और खनिज पदार्थ (जो पानी, नमक, क्षार आदि में होता है)।
स्वास्थ्य के लिए जैसे यह आवश्यक है कि भोजन बहुत अधिक न किया जाय, वैसे ही यह बात भी आवश्यक है कि कोई एक ही प्रकार की वस्तु बहुत अधिक न खाई जाय। हमें मिलाजुला भोजन करना चाहिए; अर्थात् हमारे भोजन में कई प्रकार की चीजें रहनी चाहिएँ जिसमें आवश्यक मात्रा में वे सब द्रव्य पहुँचें जिनसे शरीर का पोषण होता है और उसमें शक्ति आती है। कोई पदार्थ बराबर भोजन का काम नहीं दे सकता अर्थात् शरीर के क्षय को नहीं रोक सकता, जब तक कि उसमें शरीर तन्तु बनाने वाला सत्ता न हो। जिस पदार्थ में यह सत्ता आवश्यक मात्रा में होता है, वही बराबर आहार के लिए उपयोगी हो सकता है। खनिज अंश का भी उसमें रहना आवश्यक है। लसी वा चिकनाई दो में से एक भी हो, तो काम चल सकता है।
यद्यपि भोजन में सत्तावाले पदार्थों का उपयोग बहुत होता है, पर उन्हें अधिक मात्रा में खाने से खर्च भी अधिक होता है। एक जवान आदमी को शरीर की पूर्ति के लिए 4000 ग्रेन कारबन और 8000 ग्रेन नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है। सत्तावाले पदार्थों में साधारणत: सैकड़े पीछे 53 भाग कारबन और 15 भाग नाइट्रोजन होता है। अत: 4000 ग्रेन कारबन के लिए मनुष्य को 7500 ग्रेन सत्ता खाना चाहिए। 7500 ग्रेन में 1100 ग्रेन नाइट्रोजन होता है जो आवश्यक से चौगुना है। इससे सत्ता ही अधिक खाने के मेदे पर बहुत जोर पड़ता है और ऑंतों को फालतू नाइट्रोजन निकालने में बड़ा परिश्रम पड़ता है। स्निग्धा पदार्थों (घी, मक्खन, तेल आदि) तथा चीनी आदि में कारबन का भाग बहुत अधिक होता है और नाइट्रोजन कुछ भी नहीं होता। भोजन के साथ घी वा मक्खन आदि मिला लेने से सत्ता की बहुत कुछ आवश्यकता पूरी हो जाती है। भोजन में कुछ चीनी आदि का रहना भी उपकारी है।
भोजन के विषय में ठीक ठीक कोई नियम निर्धारित करना असम्भव है। प्रत्येक मनुष्य को अपने निज के अनुभव द्वारा यह देखना चाहिए कि उसे क्या क्या वस्तु कितनी कितनी खानी चाहिए। लोगों की प्रकृति जुदा-जुदा होती है। कुछ लोग मांस नहीं खा सकते, कुछ लोग रोटी नहीं पचा सकते। बहुत से लोग ऐसे होते हैं जिनका पेट उरद की दाल खाते ही बिगड़ जाता है। सारांश यह कि प्रत्येक मनुष्य आप यह निश्चित कर सकता है कि उसे कौन सी वस्तु अनुकूल पड़ती है और कौन प्रतिकूल। उसे यह उपदेश देने की उतनी आवश्यकता नहीं है कि तुम यह खाया करो, यह न खाया करो। ध्यावन रखने की बात इतनी ही है कि भोजन भिन्न भिन्न प्रकार का हो और उसमें संयम रखा जाय। दो चार बातें बतलाने की हैं। एक भोजन के उपरान्त फिर दूसरा भोजन कुछ अन्तर देकर किया जाय जिसमें पहले भोजन को पचने का समय मिले। जब तक एक बार किया हुआ भोजन पच न जाय, तब तक दूसरा भोजन न करना चाहिए। यदि तुमने सबेरे छ: बजे कुछ जलपान कर लिया है तो दस बजे के पहले भोजन न करो। इसी प्रकार संध्याब के समय यदि कुछ जलपान कर लिया है तो रात को नौ बजे से पहले भोजन न करो। कसरत करने के पीछे तुरन्त ही भोजन न करो, शरीर को थोड़ा ठिकाने हो लेने दो; तब उस पर भोजन पचाने का बोझा डालो। इस बात का ध्याशन रखो कि खाने की जो चीजें आवें, वे ताजी और अच्छी हों, सड़ी-गली न हों।
भोजन अच्छी तरह से पका हो, कच्चा न रहे। जो लोग मांस खाते हैं, उन्हें बीच बीच में मछली भी खानी चाहिए। अनाज के साथ साग, भाजी, तरकारी का रहना भी आवश्यक है। खाली सेर दो सेर दूधा पी जाने की अपेक्षा उसे भोजन के साथ मिलाकर खाना अच्छा है। जाड़े के दिनों में स्निग्धा पदार्थों का सेवन कुछ बढ़ा देना चाहिए और गरमी में कम कर देना चाहिए। बिना भूख के भोजन करना ठीक नहीं। भोजन का उतना ही अंश उपकारी होता है जितना पचता है; बिना पचे भोजन से हानि को छोड़ लाभ नहीं। बहुत से लोग यह समझते हैं कि जितना ही भोजन पेट में जाय, उतना ही अच्छा; और वे दिनभर कुछ न कुछ पेट में डालने की चिन्ता में रहा करते हैं। फल यह होता है कि उनकी पाचनशक्ति बिगड़ जाती है और उन्हें मन्दाग्नि, संग्रहणी आदि कई प्रकार के रोग लग जातेहैं।
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स्वास्थ्य विधान / आदर्श जीवन / डेविड ई शी / रामचंद्र शुक्ल : Part-2
स्वास्थ्य विधान / आदर्श जीवन / डेविड ई शी / रामचंद्र शुक्ल : Part-3
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