अब व्यायाम का विषय लेता हूँ जिस पर ध्यान देने की विद्यार्थी वा युवा
पुरुष को सबसे अधिक आवश्यकता है। शरीर और चित्त की स्वस्थता, मन की फुरती
और शक्ति की उमंग, बुध्दि की तीव्रता और मनन शक्ति की सूक्ष्मता इत्यादि
नियमित व्यायाम ही से हो सकती है। व्यायाम भी हमारी शिक्षा का एक अंग है।
जैसे खाने और सोने के बिना हमारा काम नहीं चल सकता, वैसे ही व्यायाम के
बिना भी नहीं चल सकता।
व्यायाम ही के द्वारा हम अपने अंगों, अवयवों और नाड़ियों की शक्ति को स्थिर रख सकते हैं। व्यायाम ही के द्वारा हम शरीर के प्रत्येक भाग में रक्त का संचार समान रूप से कर सकते हैं; क्योंकि व्यायाम से पेशियों का दबाव रक्तवाहिनी नाड़ियों पर पड़ता है जिससे रक्त का संचार तीव्र होता है। व्यायाम ही के सहारे जीवन सुखमय प्रतीत हो सकता है, क्योंकि व्यायाम से पाचन में सहायता मिलती है और पाचन ठीक होने से उदासी नहीं रह सकती। व्यायाम ही के प्रभाव से मस्तिष्क अपना काम ठीक ठीक कर सकता है। संसार में जितने प्रसिध्द पुरुष हो गए हैं, सबने व्यायाम का कोई न कोई ढंग निकाल रखा था। गोस्वामी तुलसीदास का नियम था कि नित्य सबेरे उठकर वे शौच के लिए कोस दो कोस निकल जाते थे। शौच ही से लौटते समय उनका प्रेत से साक्षात्कार होना प्रसिध्द है। भूषण कवि को घोड़े पर चढ़ने का अच्छा अभ्यास था। महाकवि भवभूति को यदि विन्धय पर्वत की घाटियों में घूमने का अभ्यास न होता, तो वे दण्डकारण्य आदि का ऐसा सुन्दर वर्णन न कर सकते। महाराज पृथ्वीराज शिकार खेलते खेलते कभी कभी अपने राज्य की सीमा के बाहर निकल जाते थे। जब तक तुम आनन्ददायक और नियमित व्यायाम द्वारा अपने को स्वस्थ न कर लिया करोगे, तब तक तुम्हारा अंग वा तुम्हारा मस्तिष्क ठीक नहीं रह सकेगा, तुम बातों का ठीक ठीक विचार और उचित निर्णय नहीं कर सकोगे। पीले पड़े हुए छात्रा से मैं यही कहूँगा-'गेंद खेलो, कबड्डी खेलो, पेड़ों में पानी दो, किसी न किसी तरह की कसरत करो।' जो शारीरिक परिश्रम तुमसे सहज में हो सके, उसी को कर चलो; शरीर को किसी न किसी तरह हिलाओ डुलाओ। मुझसे जो पूछते हो तो मैं टहलना वा घूमना सबसे अधिक स्वास्थ्यवर्धाक और आनन्ददायक समझता हूँ; पर तुम रुचि के अनुसार फेरफार कर लिया करो। कभी उछलो कूदो, कभी निशाना लगाओ, कभी तैरो, कभी घोड़े की सवारी करो। यह कभी न कहो कि तुम्हें समय नहीं मिलता या तुम्हारे पढ़ने में रुकावट होती है। पढ़ने में रुकावट जरूर होती है, पर यह रुकावट होनी चाहिए। यह न कहो कि व्यायाम तुमसे हो नहीं सकता। तुमसे हो नहीं सकता, इसीलिए तो तुम्हें करना चाहिए। बुध्दि को पुराने समय की पोथियों के बोझ से दबाने की अपेक्षा उत्तम यह होगा कि तुम थोड़ा शरीर विज्ञान जान लो और स्वास्थ्य के नियमों का ज्ञान प्राप्त कर लो। तब तुम्हें मालूम होगा कि नौ नौ, दस दस घण्टे तक सिर नीचा किए और कमर झुकाए हुए इस प्रकार बैठे रहने से कि नाड़ियों का रक्त स्तम्भित होने लगे, तुम बहुत दिनों तक पृथ्वी पर नहीं रह सकते।
पाठक व्यायाम के लाभों को अच्छी तरह समझकर मुझसे इसके नित्य नियम के विषय में पूछेंगे। वे कहेंगे कि हम टहलने को तो तैयार हैं, पर यह जानना चाहते हैं कि कितनी दूर तक और कितनी देर तक टहलें। यहाँ मैं फिर भी यही बात कहता हूँ कि हर एक की प्रकृति जुदा जुदा होती है; इससे कोई ऐसा नियम बताना, जो सबको बराबर अनुकूल पड़े प्राय: असम्भव सा है। मैं बहुतों को जानता हूँ जिन्हें अत्यन्त अधिक कसरत करने से उतनी ही हानि पहुँची है जितनी न करने से पहुँचती है। पहले पहल एकबारगी बहुत सा श्रम करने लगना हानिकारक क्या भयानक है। जो मनुष्य कई सप्ताह तक बराबर कलम दवात लिए बैठा रहा है, उसका एकबारगी उठकर बड़ी लम्बी दौड़ लगाना ठीक नहीं है। यदि किसी कारण से शारीरिक परिश्रम कुछ दिन तक बराबर बन्द रहा हो, तो उसे फिर थोड़ा थोड़ा करके आरम्भ करना चाहिए और सामर्थ देखकर धीरे धीरे बढ़ाना चाहिए। एक डॉक्टर की राय है कि एक भले चंगे आदमी के लिए नित्य नौ मील तक पैदल चलना बहुत नहीं है। इस नौ मील में वह चलना फिरना भी शामिल है जो काम काज के लिए होता है। पर जो लोग मस्तिष्क वा बुध्दि का काम करते हैं, उनके लिए नित्य इतना अधिक परिश्रम करना न सहज ही है और न निरापद ही। मैं तो समझता हूँ कि नित्य के लिए कोई हिसाब बाँधना उतना उपकारी नहीं है। यदि टहलते समय हमें इस बात का ध्या न रहेगा कि आज हमें इतने मील अवश्य चलना है, तो टहलना भी एक बोझ या कोल्हू के बैल का चक्कर हो जायेगा। जो बात आनन्द के लिए की जाती है, वह इस प्रतिबन्ध के कारण पिसाई हो जायगी। मनुष्य को दो घण्टे खुली हवा में बिताने चाहिए और उन दो घण्टों के बीच कोई हल्का परिश्रम करना चाहिए तथा किसी प्रकार के प्रतिबन्ध वा हिसाब का भाव चित्त में न आने देना चाहिए। तीन मील प्रति घण्टे के हिसाब से टहलना अच्छा है।
एक डॉक्टर ने जिन जिन अंगों पर परिश्रम पड़ता है, उनके अनुसार व्यायाम के तीन भेद किए हैं। पहला वह जिसमें शरीर के सब भागों पर समान परिश्रम पड़ता है; जैसे तैरना, कुश्ती लड़ना, पेड़ पर चढ़ना। दूसरा वह जिसमें हाथ पैर को परिश्रम पड़ता है; जैसे गेंद खेलना, निशाना लगाना आदि। तीसरा वह जिसमें पैर और धाड़ पर जोर पड़ता है, ऊपर का भाग केवल सहायक होता है; जैसे उछलना, कूदना, दौड़ना, टहलना आदि। तीनों में से प्रत्येक प्रकार का व्यायाम रुचि और अवस्था के अनुसार चुना जा सकता है। यह बात भी देखनी चाहिए कि किस प्रकार की कसरत लगातार कुछ देर तक हो सकती है, किस प्रकार की कसरत से मन में फुरती आती है और किस प्रकार की कसरत सहज में और सब जगह हो सकती है। इन सब बातों पर विचार करने से टहलना ही सबसे अच्छा पड़ता है। पर फेर फार के लिए और और प्रकार का परिश्रम भी बीच में कर लेना अच्छा है। जिमनास्टिक वा लकड़ी पर की कसरत को मैं बहुत अच्छा नहीं समझता; क्योंकि एक तो वह अस्वाभाविक (कृत्रिम) है, दूसरे उसमें श्रम अत्यन्त अधिक पड़ता है।
स्नान का स्वास्थ्यवर्ध्दक गुण सब स्वीकार करते हैं, इससे उसके सम्बन्ध में अति के निषेधा के सिवा और बहुत कुछ कहने की जरूरत नहीं है। बहुत से युवा पुरुष जब नदी, तालाब आदि में पैठते हैं, तब बहुत देर तक नहीं निकलते। यह बुरा है। इससे त्वचा की क्रिया में सुगमता नहीं, बाधा होती है। भोजन के उपरान्त तुरन्त स्नान नहीं करना चाहिए। ठण्ढे पानी से स्नान उतना ही करना चाहिए जितने से नहाने के पीछे खून में मामूली गरमी जल्दी आ जाय। मनुष्य के रक्त में साधारणत: 98 या 99 दरजे की गरमी होती है। यदि यह गरमी बहुत घट जाय या बढ़ जाय तो मनुष्य की अवस्था भयानक हो जाय और वह मर जाय। ठण्डे पानी में स्नान करने से त्वचा शीतल होती है, पर साथ ही खून की गरमी बढ़ती है। पर थोड़ी देर पानी में रहने के पीछे खून की गरमी घटने लगती है। नाड़ी मन्द हो जाती है और एक प्रकार की शिथिलता जान पड़ने लगती है। पानी से निकलने पर खून में गरमी आने लगती है और शरीर में फुरती जान पड़ती है। तौलिए या ऍंगोछे की रगड़ से यह गरमी जल्दी आ जाती है। गरम पानी से नहाने से इसका उलटा असर होता है। नहाते समय त्वचा और रक्त दोनों की गरमी साथ ही बढ़ती है, नाड़ी तीव्र होती है। गरम पानी से निकलने से त्वचा अत्यन्त सुकुमार हो जाती है और रक्तवाहिनी नाड़ियों के फिर ठण्डी होकर सिकुड़ने वा स्तब्ध होने का भय रहता है। इससे गरम पानी से नहाने के पीछे शरीर को कपड़े से ढक लेना चाहिए वा किसी गरम कोठरी में चला जाना चाहिए, एकबारगी ठंढी हवा में न निकल पड़ना चाहिए।
हृष्ट पुष्ट मनुष्य को सबेरे ठंढे पानी में स्नान करने से बड़ी फुरती रहती है, पर अशक्त और दुर्बल मनुष्यों तथा गठिया आदि के रोगियों को इस प्रकार के स्नान से बहुत भय रहता है। स्नान करना बहुत ही अधिक लाभकारी है, पर यदि समझ बूझकर किया जाय तो। अत्यन्त अधिक स्नान करने से शरीर की अवस्था का विचार करने से, लाभ के बदले हानि होती है।
स्वास्थ्य के सम्बन्ध में जितनी आवश्यक बातें थीं, उनका उल्लेख मैं संक्षेप में कर चुका। केवल एक निद्रा का विषय और रह गया है। भला चंगा आदमी जैसे यह नहीं जानता कि पेट कैसे बिगड़ता है, वैसे ही यह भी नहीं जानता कि लोगों को नींद कैसे नहीं आती है। नींद के लिए उसे कोई उपाय करने की आवश्यकता ही नहीं होती। खेद के साथ कहना पड़ता है कि मस्तिष्क से काम करनेवाले लोग नींद की चिन्ता और चर्चा बहुत किया करते हैं; क्योंकि उन्हें नींद बार बार बुलाने पर भी नहीं आती। वे एक करवट से दूसरी करवट बदला करते हैं, थकावट से उनके अंग अंग शिथिल रहते हैं, पर नींद उनके पास नहीं फटकती। नींद भी क्या सुन्दर वस्तु है! जिस समय हम नींद में झपकी लेते हुए बिस्तर पर पड़ते हैं, उस समय कैसी शान्ति मिलती है! हम हाथ पैर हिलाना डुलाना नहीं चाहते, एक अवस्था में कुछ देर पड़े रहना चाहते हैं। संज्ञा भी धीरे धीरे विदा होने लगती है, चेतना हमें छोड़कर अलग जा पड़ती है और न जाने कहाँ कहाँ भरमती है। जब मनुष्य देखे कि उसे नींद जल्दी नहीं आती तो उसे तुरन्त उसके कारण का पता लगाना चाहिए। क्योंकि नींद की ही एक ऐसी अवस्था है जब मस्तिष्क की शक्ति के क्षय की पूर्ति होती है। यदि पूर्ति न होगी तो पागल होने में कुछ देर नहीं। मस्तिष्क का काम करनेवालों को हाथ पैर का काम करनेवालों की अपेक्षा नींद की अधिक आवश्यकता होती है। पर जिनको अधिक आवश्यकता होती है, उन्हीं को नींद न आने की शिकायत भी होती है। तब फिर ऐसे लोगों को करना क्या चाहिए? जिसे उन्निद्र रोग हो, उसे अपने रोग के कारण का पता लगाना चाहिए और सोने के पहले उसे गरम पानी से स्नान कर लेना वा थोड़ा टहल आना चाहिए। कभी कभी कोठरी बदल देने से भी उपकार होता है। ऐसे रोगी को नींद लाने के लिए अफीम, मरफिया आदि का सेवन कभी नहीं करना चाहिए।
अब यह बात अच्छी तरह से प्रमाणित हो गई है कि निद्रा मस्तिष्क के रक्तकोशों के खाली होने से आती है; अर्थात् मस्तिष्क में जब रक्त नहीं पहुँचता, तभी निद्रा आती है। इससे निद्राभिलाषी रोगी को चाहिए कि वह कोई ऐसा काम न करे जिससे मस्तिष्क में रक्त का संचार तीव्र हो। यदि ऐसा रोगी अच्छी तरह पता लगाकर देखेगा, तो उसे मालूम होगा कि उसके रोग का कारण काम का अधिक बोझ, व्यायाम का अभाव, रात को बहुत देर तक पढ़ना लिखना, बन्द कमरे में बहुत देर तक बैठना इन्हीं में से कोई है। जब कारण मालूम हो जायेगा, तब उपाय सुगम हो जायेगा। पर यदि उन्निद्रता की मात्रा बहुत अधिक बढ़े तो समझना चाहिए कि शरीर में कोई व्याधि लग गई है और तुरन्त किसी अच्छे चिकित्सक को दिखाना चाहिए। मैं यहाँ पर ऐसे उन्निद्र रोग की चर्चा करता हूँ जो प्राय: लिखने पढ़नेवाले लोगों को उनकी भूलों के कारण हो जाया करता है। रात को बहुत देर तक काम करने या सोने के समय मन में बहुत सी बातों की चिन्ता रखने से यह रोग प्राय: हो जाता है। कभी कभी छात्रागण साँस लेने के लिए कैसी और कितनी हवा चाहिए, इसका कुछ भी ध्या न नहीं रखते। वे जाड़े के दिनों में कोठरी के किवाड़ बन्द करके सो रहते हैं, जिससे उन्हें साँस लेने के लिए ताजी हवा नहीं मिलती।
अब यह प्रश्न रहा कि कितने घंटे सोना चाहिए। इसका भी कोई ऐसा उत्तर नहीं दिया जा सकता जो सब लोगों पर बराबर ठीक घटे। बहुत से लोग ऐसे होते हैं जिनमें अधिक काम करने की शक्ति होती है और जो कम सोते हैं। सोने की आवश्यकता जब पूरी हो जाती है, तब प्रकृति प्राय: आप जगा देती है। पर साधारणत: यह कहा जा सकता है कि लिखने पढ़नेवाले लोगों को कम से कम सात घंटे सोने की आवश्यकता होती है। यदि वे ग्यारह बजे सोवेंगे तो छह बजे उठ जाने में उन्हें कोई कठिनता न होगी। जाड़े के दिनों में यदि सबेरे आधा घंटा और सोया जाय तो कोई हर्ज नहीं है। कृष्णपक्ष में शुक्लपक्ष की अपेक्षा सोने की अधिक आवश्यकता होती है। सबेरे उठना बहुत अच्छी बात है, पर इस प्रकार सबेरे उठना नहीं कि सोने के लिए पूरा समय ही न मिले। सबेरे वही उठ सकता है जो रात को जल्दी सो जाता है। यदि विद्यार्थी दस बजे दिया बुझा दे, तो पाँच बजे सबेरे उठ सकता है।
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स्वास्थ्य विधान / आदर्श जीवन / डेविड ई शी / रामचंद्र शुक्ल : भाग - 2
स्वास्थ्य विधान / आदर्श जीवन / डेविड ई शी / रामचंद्र शुक्ल : भाग - 1
व्यायाम ही के द्वारा हम अपने अंगों, अवयवों और नाड़ियों की शक्ति को स्थिर रख सकते हैं। व्यायाम ही के द्वारा हम शरीर के प्रत्येक भाग में रक्त का संचार समान रूप से कर सकते हैं; क्योंकि व्यायाम से पेशियों का दबाव रक्तवाहिनी नाड़ियों पर पड़ता है जिससे रक्त का संचार तीव्र होता है। व्यायाम ही के सहारे जीवन सुखमय प्रतीत हो सकता है, क्योंकि व्यायाम से पाचन में सहायता मिलती है और पाचन ठीक होने से उदासी नहीं रह सकती। व्यायाम ही के प्रभाव से मस्तिष्क अपना काम ठीक ठीक कर सकता है। संसार में जितने प्रसिध्द पुरुष हो गए हैं, सबने व्यायाम का कोई न कोई ढंग निकाल रखा था। गोस्वामी तुलसीदास का नियम था कि नित्य सबेरे उठकर वे शौच के लिए कोस दो कोस निकल जाते थे। शौच ही से लौटते समय उनका प्रेत से साक्षात्कार होना प्रसिध्द है। भूषण कवि को घोड़े पर चढ़ने का अच्छा अभ्यास था। महाकवि भवभूति को यदि विन्धय पर्वत की घाटियों में घूमने का अभ्यास न होता, तो वे दण्डकारण्य आदि का ऐसा सुन्दर वर्णन न कर सकते। महाराज पृथ्वीराज शिकार खेलते खेलते कभी कभी अपने राज्य की सीमा के बाहर निकल जाते थे। जब तक तुम आनन्ददायक और नियमित व्यायाम द्वारा अपने को स्वस्थ न कर लिया करोगे, तब तक तुम्हारा अंग वा तुम्हारा मस्तिष्क ठीक नहीं रह सकेगा, तुम बातों का ठीक ठीक विचार और उचित निर्णय नहीं कर सकोगे। पीले पड़े हुए छात्रा से मैं यही कहूँगा-'गेंद खेलो, कबड्डी खेलो, पेड़ों में पानी दो, किसी न किसी तरह की कसरत करो।' जो शारीरिक परिश्रम तुमसे सहज में हो सके, उसी को कर चलो; शरीर को किसी न किसी तरह हिलाओ डुलाओ। मुझसे जो पूछते हो तो मैं टहलना वा घूमना सबसे अधिक स्वास्थ्यवर्धाक और आनन्ददायक समझता हूँ; पर तुम रुचि के अनुसार फेरफार कर लिया करो। कभी उछलो कूदो, कभी निशाना लगाओ, कभी तैरो, कभी घोड़े की सवारी करो। यह कभी न कहो कि तुम्हें समय नहीं मिलता या तुम्हारे पढ़ने में रुकावट होती है। पढ़ने में रुकावट जरूर होती है, पर यह रुकावट होनी चाहिए। यह न कहो कि व्यायाम तुमसे हो नहीं सकता। तुमसे हो नहीं सकता, इसीलिए तो तुम्हें करना चाहिए। बुध्दि को पुराने समय की पोथियों के बोझ से दबाने की अपेक्षा उत्तम यह होगा कि तुम थोड़ा शरीर विज्ञान जान लो और स्वास्थ्य के नियमों का ज्ञान प्राप्त कर लो। तब तुम्हें मालूम होगा कि नौ नौ, दस दस घण्टे तक सिर नीचा किए और कमर झुकाए हुए इस प्रकार बैठे रहने से कि नाड़ियों का रक्त स्तम्भित होने लगे, तुम बहुत दिनों तक पृथ्वी पर नहीं रह सकते।
पाठक व्यायाम के लाभों को अच्छी तरह समझकर मुझसे इसके नित्य नियम के विषय में पूछेंगे। वे कहेंगे कि हम टहलने को तो तैयार हैं, पर यह जानना चाहते हैं कि कितनी दूर तक और कितनी देर तक टहलें। यहाँ मैं फिर भी यही बात कहता हूँ कि हर एक की प्रकृति जुदा जुदा होती है; इससे कोई ऐसा नियम बताना, जो सबको बराबर अनुकूल पड़े प्राय: असम्भव सा है। मैं बहुतों को जानता हूँ जिन्हें अत्यन्त अधिक कसरत करने से उतनी ही हानि पहुँची है जितनी न करने से पहुँचती है। पहले पहल एकबारगी बहुत सा श्रम करने लगना हानिकारक क्या भयानक है। जो मनुष्य कई सप्ताह तक बराबर कलम दवात लिए बैठा रहा है, उसका एकबारगी उठकर बड़ी लम्बी दौड़ लगाना ठीक नहीं है। यदि किसी कारण से शारीरिक परिश्रम कुछ दिन तक बराबर बन्द रहा हो, तो उसे फिर थोड़ा थोड़ा करके आरम्भ करना चाहिए और सामर्थ देखकर धीरे धीरे बढ़ाना चाहिए। एक डॉक्टर की राय है कि एक भले चंगे आदमी के लिए नित्य नौ मील तक पैदल चलना बहुत नहीं है। इस नौ मील में वह चलना फिरना भी शामिल है जो काम काज के लिए होता है। पर जो लोग मस्तिष्क वा बुध्दि का काम करते हैं, उनके लिए नित्य इतना अधिक परिश्रम करना न सहज ही है और न निरापद ही। मैं तो समझता हूँ कि नित्य के लिए कोई हिसाब बाँधना उतना उपकारी नहीं है। यदि टहलते समय हमें इस बात का ध्या न रहेगा कि आज हमें इतने मील अवश्य चलना है, तो टहलना भी एक बोझ या कोल्हू के बैल का चक्कर हो जायेगा। जो बात आनन्द के लिए की जाती है, वह इस प्रतिबन्ध के कारण पिसाई हो जायगी। मनुष्य को दो घण्टे खुली हवा में बिताने चाहिए और उन दो घण्टों के बीच कोई हल्का परिश्रम करना चाहिए तथा किसी प्रकार के प्रतिबन्ध वा हिसाब का भाव चित्त में न आने देना चाहिए। तीन मील प्रति घण्टे के हिसाब से टहलना अच्छा है।
एक डॉक्टर ने जिन जिन अंगों पर परिश्रम पड़ता है, उनके अनुसार व्यायाम के तीन भेद किए हैं। पहला वह जिसमें शरीर के सब भागों पर समान परिश्रम पड़ता है; जैसे तैरना, कुश्ती लड़ना, पेड़ पर चढ़ना। दूसरा वह जिसमें हाथ पैर को परिश्रम पड़ता है; जैसे गेंद खेलना, निशाना लगाना आदि। तीसरा वह जिसमें पैर और धाड़ पर जोर पड़ता है, ऊपर का भाग केवल सहायक होता है; जैसे उछलना, कूदना, दौड़ना, टहलना आदि। तीनों में से प्रत्येक प्रकार का व्यायाम रुचि और अवस्था के अनुसार चुना जा सकता है। यह बात भी देखनी चाहिए कि किस प्रकार की कसरत लगातार कुछ देर तक हो सकती है, किस प्रकार की कसरत से मन में फुरती आती है और किस प्रकार की कसरत सहज में और सब जगह हो सकती है। इन सब बातों पर विचार करने से टहलना ही सबसे अच्छा पड़ता है। पर फेर फार के लिए और और प्रकार का परिश्रम भी बीच में कर लेना अच्छा है। जिमनास्टिक वा लकड़ी पर की कसरत को मैं बहुत अच्छा नहीं समझता; क्योंकि एक तो वह अस्वाभाविक (कृत्रिम) है, दूसरे उसमें श्रम अत्यन्त अधिक पड़ता है।
स्नान का स्वास्थ्यवर्ध्दक गुण सब स्वीकार करते हैं, इससे उसके सम्बन्ध में अति के निषेधा के सिवा और बहुत कुछ कहने की जरूरत नहीं है। बहुत से युवा पुरुष जब नदी, तालाब आदि में पैठते हैं, तब बहुत देर तक नहीं निकलते। यह बुरा है। इससे त्वचा की क्रिया में सुगमता नहीं, बाधा होती है। भोजन के उपरान्त तुरन्त स्नान नहीं करना चाहिए। ठण्ढे पानी से स्नान उतना ही करना चाहिए जितने से नहाने के पीछे खून में मामूली गरमी जल्दी आ जाय। मनुष्य के रक्त में साधारणत: 98 या 99 दरजे की गरमी होती है। यदि यह गरमी बहुत घट जाय या बढ़ जाय तो मनुष्य की अवस्था भयानक हो जाय और वह मर जाय। ठण्डे पानी में स्नान करने से त्वचा शीतल होती है, पर साथ ही खून की गरमी बढ़ती है। पर थोड़ी देर पानी में रहने के पीछे खून की गरमी घटने लगती है। नाड़ी मन्द हो जाती है और एक प्रकार की शिथिलता जान पड़ने लगती है। पानी से निकलने पर खून में गरमी आने लगती है और शरीर में फुरती जान पड़ती है। तौलिए या ऍंगोछे की रगड़ से यह गरमी जल्दी आ जाती है। गरम पानी से नहाने से इसका उलटा असर होता है। नहाते समय त्वचा और रक्त दोनों की गरमी साथ ही बढ़ती है, नाड़ी तीव्र होती है। गरम पानी से निकलने से त्वचा अत्यन्त सुकुमार हो जाती है और रक्तवाहिनी नाड़ियों के फिर ठण्डी होकर सिकुड़ने वा स्तब्ध होने का भय रहता है। इससे गरम पानी से नहाने के पीछे शरीर को कपड़े से ढक लेना चाहिए वा किसी गरम कोठरी में चला जाना चाहिए, एकबारगी ठंढी हवा में न निकल पड़ना चाहिए।
हृष्ट पुष्ट मनुष्य को सबेरे ठंढे पानी में स्नान करने से बड़ी फुरती रहती है, पर अशक्त और दुर्बल मनुष्यों तथा गठिया आदि के रोगियों को इस प्रकार के स्नान से बहुत भय रहता है। स्नान करना बहुत ही अधिक लाभकारी है, पर यदि समझ बूझकर किया जाय तो। अत्यन्त अधिक स्नान करने से शरीर की अवस्था का विचार करने से, लाभ के बदले हानि होती है।
स्वास्थ्य के सम्बन्ध में जितनी आवश्यक बातें थीं, उनका उल्लेख मैं संक्षेप में कर चुका। केवल एक निद्रा का विषय और रह गया है। भला चंगा आदमी जैसे यह नहीं जानता कि पेट कैसे बिगड़ता है, वैसे ही यह भी नहीं जानता कि लोगों को नींद कैसे नहीं आती है। नींद के लिए उसे कोई उपाय करने की आवश्यकता ही नहीं होती। खेद के साथ कहना पड़ता है कि मस्तिष्क से काम करनेवाले लोग नींद की चिन्ता और चर्चा बहुत किया करते हैं; क्योंकि उन्हें नींद बार बार बुलाने पर भी नहीं आती। वे एक करवट से दूसरी करवट बदला करते हैं, थकावट से उनके अंग अंग शिथिल रहते हैं, पर नींद उनके पास नहीं फटकती। नींद भी क्या सुन्दर वस्तु है! जिस समय हम नींद में झपकी लेते हुए बिस्तर पर पड़ते हैं, उस समय कैसी शान्ति मिलती है! हम हाथ पैर हिलाना डुलाना नहीं चाहते, एक अवस्था में कुछ देर पड़े रहना चाहते हैं। संज्ञा भी धीरे धीरे विदा होने लगती है, चेतना हमें छोड़कर अलग जा पड़ती है और न जाने कहाँ कहाँ भरमती है। जब मनुष्य देखे कि उसे नींद जल्दी नहीं आती तो उसे तुरन्त उसके कारण का पता लगाना चाहिए। क्योंकि नींद की ही एक ऐसी अवस्था है जब मस्तिष्क की शक्ति के क्षय की पूर्ति होती है। यदि पूर्ति न होगी तो पागल होने में कुछ देर नहीं। मस्तिष्क का काम करनेवालों को हाथ पैर का काम करनेवालों की अपेक्षा नींद की अधिक आवश्यकता होती है। पर जिनको अधिक आवश्यकता होती है, उन्हीं को नींद न आने की शिकायत भी होती है। तब फिर ऐसे लोगों को करना क्या चाहिए? जिसे उन्निद्र रोग हो, उसे अपने रोग के कारण का पता लगाना चाहिए और सोने के पहले उसे गरम पानी से स्नान कर लेना वा थोड़ा टहल आना चाहिए। कभी कभी कोठरी बदल देने से भी उपकार होता है। ऐसे रोगी को नींद लाने के लिए अफीम, मरफिया आदि का सेवन कभी नहीं करना चाहिए।
अब यह बात अच्छी तरह से प्रमाणित हो गई है कि निद्रा मस्तिष्क के रक्तकोशों के खाली होने से आती है; अर्थात् मस्तिष्क में जब रक्त नहीं पहुँचता, तभी निद्रा आती है। इससे निद्राभिलाषी रोगी को चाहिए कि वह कोई ऐसा काम न करे जिससे मस्तिष्क में रक्त का संचार तीव्र हो। यदि ऐसा रोगी अच्छी तरह पता लगाकर देखेगा, तो उसे मालूम होगा कि उसके रोग का कारण काम का अधिक बोझ, व्यायाम का अभाव, रात को बहुत देर तक पढ़ना लिखना, बन्द कमरे में बहुत देर तक बैठना इन्हीं में से कोई है। जब कारण मालूम हो जायेगा, तब उपाय सुगम हो जायेगा। पर यदि उन्निद्रता की मात्रा बहुत अधिक बढ़े तो समझना चाहिए कि शरीर में कोई व्याधि लग गई है और तुरन्त किसी अच्छे चिकित्सक को दिखाना चाहिए। मैं यहाँ पर ऐसे उन्निद्र रोग की चर्चा करता हूँ जो प्राय: लिखने पढ़नेवाले लोगों को उनकी भूलों के कारण हो जाया करता है। रात को बहुत देर तक काम करने या सोने के समय मन में बहुत सी बातों की चिन्ता रखने से यह रोग प्राय: हो जाता है। कभी कभी छात्रागण साँस लेने के लिए कैसी और कितनी हवा चाहिए, इसका कुछ भी ध्या न नहीं रखते। वे जाड़े के दिनों में कोठरी के किवाड़ बन्द करके सो रहते हैं, जिससे उन्हें साँस लेने के लिए ताजी हवा नहीं मिलती।
अब यह प्रश्न रहा कि कितने घंटे सोना चाहिए। इसका भी कोई ऐसा उत्तर नहीं दिया जा सकता जो सब लोगों पर बराबर ठीक घटे। बहुत से लोग ऐसे होते हैं जिनमें अधिक काम करने की शक्ति होती है और जो कम सोते हैं। सोने की आवश्यकता जब पूरी हो जाती है, तब प्रकृति प्राय: आप जगा देती है। पर साधारणत: यह कहा जा सकता है कि लिखने पढ़नेवाले लोगों को कम से कम सात घंटे सोने की आवश्यकता होती है। यदि वे ग्यारह बजे सोवेंगे तो छह बजे उठ जाने में उन्हें कोई कठिनता न होगी। जाड़े के दिनों में यदि सबेरे आधा घंटा और सोया जाय तो कोई हर्ज नहीं है। कृष्णपक्ष में शुक्लपक्ष की अपेक्षा सोने की अधिक आवश्यकता होती है। सबेरे उठना बहुत अच्छी बात है, पर इस प्रकार सबेरे उठना नहीं कि सोने के लिए पूरा समय ही न मिले। सबेरे वही उठ सकता है जो रात को जल्दी सो जाता है। यदि विद्यार्थी दस बजे दिया बुझा दे, तो पाँच बजे सबेरे उठ सकता है।
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स्वास्थ्य विधान / आदर्श जीवन / डेविड ई शी / रामचंद्र शुक्ल : भाग - 2
स्वास्थ्य विधान / आदर्श जीवन / डेविड ई शी / रामचंद्र शुक्ल : भाग - 1
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