दूसरों को दोष न दें

अल्पज्ञानी को कुछ सूझ गया तो थोथा चना भी घना बजने लगा और इस बार इस अल्पज्ञानी के लेख का विषय है - दूसरों के दोष नहीं देखना और न ही किसी पर दोष मढ़ना । कबीरदास जी कहते हैं :
बुरा जो देखन मैं चला , बुरा न मिलया कोय ।
जो दिल खोजा आपना , मुझसे बुरा न कोय ।
अक्सर हम सभी अपने किसी काम के बिगड़ जाने पर अथवा कोई गलती हो जाने पर उसका सारा दोष दूसरों पर डाल देते हैं कि इसके कारण ही ऐसा हुआ ।
इसी तरह कुछ लोगों को दूसरों में दोष देखने की आदत होती है । यदि वे किसी से पहली बार भी मिलें तो उसके दोष उन्हें आसानी से नजर आ जाते हैं । इस दुर्गुण को ' परदोष-दर्शन ' कहा जाता है । फिर भी यदि व्यक्ति को दोष-दर्शन करने की आदत हो तो उसे स्वयं के दोष देखने चाहिए इससे स्वभाव में अच्छाई आती है और बुराइयों में कमी ।
" जाकि रही भावना जैसी " के अनुसार जो व्यक्ति जैसा होगा उसे सभी वैसे ही लगेंगे ।"
दोष-दर्शन के अलावा एक दुर्गुण ' दोषा-रोपण ' का भी होता है । गलतियाँ हम करें और बड़ी आसानी से इसे किसी और के सिर डाल दें । यदि दोष-मढ़ने के लिए मनुष्य न मिलें या उनके रूठ जाने का भय हो तो फिर भाग्य और भगवान तो हैं ही जो बुरा नहीं मानते ।
हाँ , यदि काम सफल रहा तो श्रेय बढ़-चढ़कर हम स्वयं लेंगे ।
             वैसे देखा जाए तो किसी भी समय व परिस्थिति के लिए दूसरों को जिम्मेदार मानना ठीक नहीं होता । एक व्यक्ति जो भी है , अपने कर्मों के कारण है ; उसने जो बोया है , वही काट रहा है । हमारे साथ जो हो रहा है वह परिणाम है उन कार्यों का जो हमने किए हैं ।
अतः किसी भी प्रकार से दूसरों की बुराइयाँ एवं दोष देखना तथा दोष देना ; छोड़ देना चाहिए । जो काम हमने किए हैं उनकी जिम्मेदारी हम स्वयं लें फिर चाहे वो सफल हों या असफल ।
इससे हम दूसरों के प्रति मन में मैल रखने से तो बचेंगे ही साथ में अपने स्वभाव तथा क्षमताओं में सुधार भी ला सकेंगे ।
(( " विनाशकाले विपरीत बुद्धि की अवधारणा " ))
महाभारत की कथा के अंतर्गत जब ' युधिष्ठिर और दुर्योधन ' के बीच द्यूद का प्रसंग आता है जिसमें पाँचों पांडव अपना सब कुछ गवाँ बैठे थे तब ' विनाशकाले विपरीत बुद्धि ' की उक्ति उद्धृत की जाती है । 
' विनाशकाले विपरीत बुद्धि ' माने जब किसी का बुरा समय आने वाला होता है तब उसकी बुद्धि भी उलट जाती है । उसकी सारी सूझ-बूझ और समझ खो जाती है और वह व्यक्ति अजीबो-गरीब कार्य और निर्णय करने लगता है जिसके फलस्वरूप उसे बुरा परिणाम भुगतना पड़ता है तथा विनाशकाल अर्थात् विपत्ति का सामना करना पड़ता है ।
यदि हम कुछ बुरा करेंगे तो उसका परिणाम भी बुरा होगा । असल में " बुद्धि , सूझ-बूझ और सही समझ से निर्णय करने की क्षमता है " और जब इस पर कुछ गलत तत्त्वों का प्रभाव पड़ जाता है तो यह उस प्रभाव में अपना सही रूप छोड़कर उन तत्वों के अनुसार कार्य करने लगती है । तब हम कह सकते हैं कि " बुद्धि विपरीत " हो गई है । कोई भी चीज जब अपने नियत स्वभाव से हटकर उलटा काम करे तो उसे अनुचित ही माना जाएगा । 
इसी प्रकार , बुद्धि भी काम , क्रोध , अहंकार , ईर्ष्या , द्वेष और लालच आदि के प्रभाव में आ जाती है । विशेषकर अभिमानी और क्रोधी मन व बुद्धि वाला मनुष्य लोगों को अधिक ठेस पहुँचाता है । कोई अन्य हमें नहीं भटकाता बल्कि ये दुर्गुण ही भटकाते हैं । इसी तरह बुद्धि पर दया-ममत्व आदि सद्भावों का भी प्रभाव होता है ।  
अतः बुद्धि को सदा सम , निष्प्रभाव और सही रखने के लिए सदैव इन दुर्गुणों से दूर रहना चाहिए तथा हर समय यह जाँचते रहना चाहिए कि कहीं आपका मन किसी गलत प्रभाव में तो नहीं है । स्वयं से इतने प्रयास करने के साथ-साथ अंततः सबकुछ भगवान पर छोड़ देना चाहिए कि जो होना होगा सो होगा ।  

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