ज्यों निकल कर बादलों की गोद से ।
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी ॥
सोचने फिर फिर यही जी में लगी ।
आह क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी ॥
दैव मेरे भाग्य में क्या है बढ़ा ।
में बचूँगी या मिलूँगी धूल में ॥
या जलूँगी गिर अंगारे पर किसी ।
चू पडूँगी या कमल के फूल में ॥
बह गयी उस काल एक ऐसी हवा ।
वह समुन्दर ओर आई अनमनी ॥
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला ।
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ॥
लोग यों ही है झिझकते, सोचते ।
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर ॥
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें ।
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ॥
- अयोध्या सिंह उपाध्याय ' हरिऔध '
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