हमारा लोगों के साथ व्यवहार कैसा होना चाहिए

हमारी संस्कृति में आपसी व्यवहार या सामाजिक व्यवहार को बहुत महत्ता दी जाती है । आखिर जिनसे हम बात करते हैं , जिनके साथ हमारा उठना-बैठना होता है या जिनको हम हर जगह पाते हैं - वे लोग हैं , इंसान हैं ; रोबोट या मशीन तो हैं नहीं और इंसान में भावनाएँ तो होती ही हैं अतः यह बात विचार करने और जानने योग्य है कि " हमारा लोगों के साथ व्यवहार कैसा होना चाहिए " ।

 मैं अपने निजी अनुभव से , यहाँ कुछ व्यवहारगत सच्ची बातें लिखना चाहूँगी जो न तो कहीं से काॅपी की गई हैं - न कहीं से पढ़ी गईं हैं । कह सकते हैं कि मेरे लिए ये कुछ मौलिक कथन हैं ; पर अवश्य ही , हमारे आदरणीय शास्त्रों व नीतियों से ही प्रेरित हैं । स्पष्ट है , बात पुरानी है पर अनुभव नया है ।

(1) पहली और बिल्कुल सच्ची बात है कि हम भले तो जग भला , असल में हम जैसा व्यवहार दूसरों से करते हैं वैसा ही वापस पाते हैं । यदि कोई ऐसा मानता है कि लोग बुरे हैं-संसार खराब है तो अपनी जिंदगी में वे अधिकांशतः ऐसे ही लोगों से मिलेंगे जो उनकी इस मान्यता को और सुदृढ़ कर देंगे यानि बुरे ही । इस प्रकार के लोग अच्छे इंसान में भी कोई न कोई बुराई ढूढ़ लेते हैं ।
वहीं यदि आप लोगों के प्रति सकारात्मक व अच्छा नजरिया रखते हैं तो आपको वैसे ही लोग मिलेंगे यानि अच्छे ही और हो सकता है बुरे लोग भी अच्छे लगने लगें । यह बस अपने-अपने नजरिये की बात है । जाकि रही भावना जैसी ।

(2) लोग कहते हैं या समाज कहता है - जैसी बातें हम अक्सर दूसरों के ऊपर थोप देते हैं कि वे ऐसा कहते हैं ; परन्तु यह भूल जाते हैं हम भी उसी समाज का हिस्सा हैं और हम भी किसी के लिए वह ' लोग ' हैं जो कुछ कहते हैं । किसी भी घटना या क्रिया के प्रति किसी की राय या प्रतिक्रिया ' कहना ' कहला सकती है ।
जबकि अपनी राय रखने के लिए किसी को दोष नहीं दिया जा सकता ।
' समाज ' कोई अकेला व्यक्ति नहीं होता बल्कि व्यक्तियों व परिवारों का एक समूह होता है । हम सभी मिलकर किसी ' समाज ' का निर्माण करते हैं । अब आती है ' कहने ' वाली बात तो यह गलत नहीं होगा यदि हम किसी के लिए ' कुछ कहें ' क्योंकि समाज विशेष का निर्माण ही कुछ मर्यादाओं एवं निर्धारित सीमाओं का पालन करने के लिए के लिए किया जाता है ।

जिस व्यक्ति का परिवार न हो या जिस परिवार का कोई समाज न हो उसमें उच्छृंखलता की भावना पनप सकती है । स्पष्ट है , समाज का भय ही सही परंतु हमें अनुशासित करता है ।
अंततः कहने का यही अर्थ है कि " जब हम किसी के लिए कुछ कहें या किसी को हमारे लिए कुछ कहने पर दोष दें , तब एक बार स्वयं को उसके स्थान पर रखकर जरूर देखें ताकि उस व्यक्ति पर बीतती परिस्थिति और फलस्वरूप उसका बर्ताव हमें समझ में आ जाए । यदि हम उस जगह होते तो हम क्या करते ? यदि हम वैसे हालात में होते तो हम भी क्या वैसा ही करते ?
ऐसा सोचना , मुझे दूसरों के प्रति सहृदयी और सहानुभूत बनाता है और तब इस संसार में मुझे कोई बुरा नहीं लगता ।

(3) कुछ दुर्लभ घटनाक्रमों में , यदि कोई वाकई ' बुरा ' हुआ तो उसकी सोच व कर्मों के लिए उसे न प्राप्त हुए संस्कारों व शिक्षा के लिए उसका दोष न मानते हुए , क्षमा कर देना ही उचित होता है । दंड की अनिवार्यता हो तो ठीक है परंतु मन में कोई कड़वाहट मत रखिए । हमारे मन को पूर्णतः दोषमुक्त होना चाहिए । शुद्ध हृदय में शांति होती है । किसी के प्रति घृणा पालकर अपना हृदय मलिन मत करिए ।
ईश्वर सबसे बड़े क्षमावान हैं । हम उनसे अपनी गलतियों की क्षमा मांगते है लेकिन उससे पहले , क्या हम अपने प्रति गलत करने वालों को क्षमा कर सकते हैं ? एक प्रार्थना में गुरूदेव 'रवीन्द्र नाथ टैगोर' जी ऐसा कहते हैं ।
(4) अधिकतर मामलों में हम अपना 'communication' पूरा नहीं करते हैं अर्थात् हमारी किसी के साथ बातचीत पूरी नहीं होती या तो बातचीत का कोई निष्कर्ष नहीं निकलता या फिर सही संप्रेषण नहीं हो पाता जिससे 'miscommunication' होता है ।
अब जैसे कभी-कभी हम चाहते हुए भी संकोच के कारण किसी से गलतियों की क्षमा नहीं मांगते या अच्छाई का धन्यवाद नहीं करते ।

(5) सीखीए और सिखाइए । हम जीवन से सदैव सीखते रहें और जिससे भी हम मिलें उसे भी आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते रहें । कभी किसीको हतोत्साहित मत कीजिए , न ही स्वयं कभी नकारात्मक सोचिए ।

(6) ईमानदारी सर्वोत्तम नीति है । यह मेरा अनुभव है कि यदि हम अपनी ओर से ईमानदार हैं और हमारे मन में कोई खोट-कोई बुराई नहीं है तो हमारे साथ कभी बुरा नहीं हो सकता । यह कथन ' धर्मों रक्षति रक्षितः ' की तरह है कि यदि हम अपने धर्म का-अपने आदर्शों का पालन करते हैं तो ईश्वर सदैव हमारा साथ देते हैं और हमारी रक्षा करते हैं ।

(7) हमारे जीवन जो कुछ भी होता है उसमें हमारा भला ही छुपा होता है अभी चाहे वह हमें पता हो या नहीं हो ।

(8) जीवन में दुखों और कष्टों से मुक्ति पाने का एक ही साधन है - भगवद्भक्ति अर्थात् भगवान की शरण । भगवान की शरण में रहने से यदि हम पर दुख आएगा तो भी हम दुखी नहीं होंगे - ऐसा श्री भागवत कथा में आता है ।
विवेक और ज्ञान का बादाम यदि कष्टों और दुखों की सुपारी में मिला दिया जाता है तो जीवन रूपी समय अच्छे से कट जाता है । ज्ञान और विवेक , सत्संग और सत्साहित्य तथा सत्चिंतन से प्राप्त होता है ।
  
(9) विनम्रता सबके द्वारा अपनाने योग्य है तथा घमंड सबके लिए त्याज्य है । पढ़-लिख जाने का अर्थ यह नहीं कि हम अहंकारी हो जाएँ क्योंकि ' विद्या ददाति विनयं ', शिक्षा हमें विनम्र बनाती है ।
धैर्य व साहस रखना हर परिस्थति में उपयोगी है । विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य नहीं खोना चाहिए । स्वावलंबी तथा आत्मनिर्भर होना भी उतना ही जरूरी है ।

(10) श्री भागवत महापुराण में , कलियुग के बारे में बहुत कुछ मिलता है और बिल्कुल वैसा ही आज हो रहा है यानि संसार में जो कुछ भी हो रहा है - अच्छा या बुरा ; हमें प्रभावित करता है परंतु इसे स्वीकार करना ही पड़ता है । अंततः ज्यादा परेशान न होकर हमारा अपनी तरफ से सही रास्ते पर चलना पर्याप्त है ।
ये कुछ मुख्य बातें थीं - मेरे अनुभव से । 

हम स्वयं अच्छा करें । दूसरों को समझाकर समय और ऊर्जा व्यर्थ करने में क्या लाभ ? कहने को तो बहुत कुछ होता है लेकिन करने से , ज्यादा अच्छा संदेश दूसरों को पहुँचता है । मनुष्य को क्या करणीय है क्या अकरणीय है यह समझाने के लिए , न जाने कितने ग्रंथ व नियमावलियाँ लिखी जा चुकीं है फिर चाहे वह धार्मिक हो , सामाजिक हो या संवैधानिक ।
परंतु मेरी तरह हर कोई अपनी ओर से छोटा-सा योगदान समाज में देने की कोशिश करता है । कुछ लिख दिया कुछ लिखना बाकि है । अंततः ' हारे को हरि का नाम '॥ जय श्री राम ॥
( अंत का भाग पुस्तक ' मनका-मनका फेर ' लेखक - रघुवंश शुक्ल , से प्रेरित )